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Sri Krishna\Krishna Ashtottara Shatanama Stotram

कृष्ण लीला अष्टोत्तर शतनाम स्तोत्रम्

कृष्ण लीला अष्टोत्तर शतनाम स्तोत्रम्...

श्री कृष्ण लीला अष्टोत्तर शतनाम स्तोत्रम् भगवान श्री कृष्ण जी समर्पित हैं, इस स्तोत्रम् में कृष्ण भगवान के बचपन की लीला के बारे में बताया गया हैं। श्री कृष्ण लीला अष्टोत्तर शतनाम स्तोत्रम् का पाठ विशेष रूप से श्री कृष्ण जन्माष्टमी पर किया जाता हैं। श्री कृष्ण लीला अष्टोत्तर शतनाम स्तोत्रम् का नियमित रूप से पाठ करना बहुत लाभदायक होगा।

॥ कृष्ण लीला अष्टोत्तर शतनाम स्तोत्रम् ॥

शाण्डिल्य उवाच ।

अथ लीलाशतं स्तोत्रं प्रवक्ष्यामि हरेः प्रियम् ।
यस्याभ्यसनतः सद्यः प्रीयते पुरुषोत्तमः ॥ १॥

यदुक्तं श्रीमता पूर्वं प्रियायै प्रीतिपूर्वकम् ।
ललितायै यथाप्रोक्तं सा मह्यं कृपया जगौ ॥ २॥

श्रुतिभिर्यत्पुरा प्रोक्तं मुनिभिर्यत्पुरोदितम् ।
तदहं वो वर्णयिष्ये श्रद्धालून् संमतान् शुचीन् ॥ ३॥

लीलानामशतस्यास्य ऋषयोऽग्निसमुद्भवाः ।
देवता शीपतिर्नित्यलीलानुग्रहविग्रहः ॥ ४॥

छन्दांस्यनुष्टुप् रूपाणि कीर्तितानि मुनीश्वराः ।
बीजं भक्तानुग्रहकृत् शक्तिलीलाप्रियः प्रभुः ॥ ५॥

श्रीकृष्णभगवत्प्रीतिद्वारा स्वार्थे नियोजनम् ।
सर्वेश्वरश्च सर्वात्मा सर्वतोऽस्रेण रक्षतु ॥ ६॥

श्रीकृष्णः सच्चिदानन्दः स्वतन्त्रपरमावधिः ।
लीलाकर्ता बाललीलो निजानन्दैकविग्रहः ॥ ७॥

लीलाशक्तिर्निजलीलासृष्टिदेहो विनोदकृत् ।
वृन्दावने गोपिगोपगोद्विजादिसचिन्मयः ॥ ८॥

वाक्सृष्टिकर्ता नादात्मा प्रणवो वर्णरूपधृक् ॥ ९॥

प्रकृतिः प्रत्ययो वाक्यो वेदो वेदाङ्गजः कविः ।
मायोद्भवोद्भवोऽचिन्त्यकार्यो जीवप्रवर्तकः ॥ १०॥

नानातत्त्वानुरूपश्च कालकर्मस्वभावकः ।
वेदानुगो वेदवेत्ता नियतो मुक्तबन्धनः ॥ ११॥

असुरक्लेशदो क्लिष्टजननिद्रारतिप्रदः ।
नारायणो हृषीकेशो देवदेवो जनार्दनः ॥ १२॥

स्ववर्णाश्रमधर्मात्मा संस्कृतः शुद्धमानसः ।
अग्निहोत्रादिपञ्चात्मा स्वर्गलोकफलप्रदः ॥ १३॥

शुद्धात्मज्ञानदो ज्ञानगम्यःस्वानन्ददायकः ।
देवानन्दकरो मेघश्यामलः सत्त्वविग्रहः । १४॥

गम्भीरोऽनवगाह्यश्रीद्विभुजो मुरलीधरः ।
पूर्णानन्दघनः साक्षात् कोटिमन्मथमन्मथः ॥ १५॥

श्रुतिगम्यो भक्तिगम्यो मुनिगम्यो व्रजेश्वरः ।
श्रीयशोदासुतो नन्दभाग्यचिन्तामणिः प्रभुः ॥ १६॥

अविद्याहरणः सर्वदोषसङ्घविनाशकः ।
निःसाधनोद्धारदक्षो भक्तानुग्रहकातरः ॥ १७॥

सर्वसामर्थ्यसहितो दैवदोषनिवारकः ।
कुमारिकानुग्रहकृद् योगमायाप्रसादकृत् ॥ १८॥

ब्रह्मानन्दपरानन्दभजनानन्ददायकः ।
लोकव्यामोहकृत्स्वीयानुग्रहो वेणुवादतः ॥ १९॥

नित्यलीलारासरतो नित्यलीलाफलप्रदः ।
मूढोद्धारकरो राजलीलासन्तोषितामरः ॥ २०॥

सतां लोकद्वयानन्ददश्चैश्वर्यादिभूषितः ।
निरोधलीलासम्पत्तिर्दशलीलापरायणः ॥ २१॥

द्वादशाङ्गवपुः श्रीमाँश्चतृर्व्यूहश्चतुर्मयः ।
गोकुलानन्ददः श्रीमद् गोवर्धनकृताश्रयः ॥ २२॥

चराचरानुग्रहकृद्वंशीवाद्यविशारदः ।
देवकीनन्दनो द्वारापतिर्गोवर्धनाद्रिभृत् ॥ २३॥

श्रीगोकुलसुधानाथः श्रीमुकुन्दोऽतिसुन्दरः ।
बाललीलारतो हैयङ्गवीनरसतत्परः ॥ २४॥

नृत्यप्रियो युग्मलीलो त्रिभङ्गललिताकृतिः ।
आचार्यानुगृहीतात्मा करुणावरुणालयः ॥ २५॥

श्रीराधिकाप्रेममूर्तिः श्रीचन्द्रावलिवल्लभः ।
ललिताप्राणनाथः श्रीकलिन्दगिरिजाप्रियः ॥ २६॥

अप्राकृतगुणोदारो ब्रह्मेशेन्द्रादिवन्दितः ।
पवित्रकीर्तिःश्रीनाथो वृन्दारण्यपुरन्दरः ॥ २७॥

इति लीलाशतं नाम्नां निजात्मकसमन्वितम् ।
यः पठेत्प्रत्यहं प्रीत्या तं प्रीणाति स माधवः ॥ २८॥

ईषणात्रयनिर्मुक्तो या पठेद्धरिसन्निधौ ।
सोऽचलां भक्तिमाप्नोति इति सत्यं मुनीश्वराः ॥ २९॥

ईषणात्रयसम्पन्नं यस्य चित्त प्रखिद्यति ।
तेनात्र ध्यानगम्येन प्रकारेण समाप्यते ॥ ३०॥

पुत्रेषणासु सर्वासु ध्यायेत्पुत्रप्रदं हरिम् ।
ब्रह्माणं मोहयत्तेन वरावाप्तिः प्रजायते ॥ ३१॥

वित्तेषणास्सु वासांसि भूषणानि शिखामणिम् ।
वदन्तं विषयीकुर्वंल्लभते तत् स्थिरञ्च यत् ॥ ३२॥

लोकेषणासु नन्दस्य साधयन्परतन्त्रताम् ।
ध्यात्वा हृदि महाभाग्यो भवेल्लोकद्वये पुमान् ॥ ३३॥

समर्च्य भगवन्तं तं शालग्रामस्य मन्दिरे ।
नमोऽन्तैर्नामसन्मन्त्रैर्दद्याद्वृन्दादलान्यसौ ॥ ३४॥

निवेदयेत्ततः स्वार्थं मध्याह्ने पररात्रके ।
तेन सर्वमवाप्नोति प्रसीदति ततस्त्वमुम् ॥ ३५॥

सर्वापराधहरणं सर्वदोषनिवारणम् ।
सर्वभक्तिप्रजननं भावस्य सदृशं परम् ॥ ३६॥

एतस्यैव समासाद्य गायत्र्याख्यं महामनुम् ।
पठेन्नाम्ना सहस्रं च सुदामादिसमो भवेत् ॥ ३७॥

अनयोः सदृशं नास्ति प्रकारोऽत्रापरः परः ।
कामव्याकुलचितस्य शोधनाय सतां मतः ॥ ३८॥

न सौषधी मता पुंसा या गदान्तरमर्पयेत् ।
प्रकृतं सन्निवर्त्याघं वासनां या न संहरेत् ॥ ३९॥

विषयाक्रान्तचित्तानां नावेशः कर्हिचिद्धरेः ।
ततो निवृत्तिः कार्येभ्य इत्याह तनयं विधिः ॥ ४०॥

श्रीकृष्णेति महामन्त्रं श्रीकृष्णेति महौषधी ।
ये भजन्ति महाभागास्तेषां किं किं न सिद्धयति ॥ ४१॥

इति लीलाशतनामस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।

इति श्रीशाण्डिल्यसंहितायां पञ्चमे भक्तिखण्डे द्वितीयभागे तृतीयो अष्टादशोऽध्यायः ॥ १८॥

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