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Pitar-Stotra/Shri-Pitru-Kripa-Stotram/श्री पितृ कृपा स्तोत्रम्

श्री पितृ कृपा स्तोत्रम् — परिचय, महत्व और लाभ | Bhakti Gyan

श्री पितृ कृपा स्तोत्रम्...

श्री पितृ कृपा स्तोत्रम् हिन्दू धर्म में पितरों (पूर्वजों) की आराधना और तृप्ति हेतु एक अत्यंत प्रभावी एवं पावन स्तोत्र माना गया है। इसका पाठ करने से—
  • पितरों की आत्मा को शांति प्राप्त होती है।
  • परिवार में सुख-समृद्धि और स्वास्थ्य बना रहता है।
  • वंश में स्थिरता, संतान-सुख और कल्याण प्राप्त होता है।
  • पितृदोष, पितृरिण तथा अनिष्ट बाधाओं से मुक्ति मिलती है।
  • इस स्तोत्र का उल्लेख गृहस्थ और श्राद्ध कर्म से जुड़े ग्रंथों में मिलता है।
  • ऋग्वेद, अथर्ववेद तथा पुराणों में पितृ पूजन का महत्त्व बताया गया है।
यह स्तोत्र आमतौर पर श्राद्ध पक्ष (पितृपक्ष) में अधिक पढ़ा जाता है, परंतु कोई भी व्यक्ति इसे श्रद्धा और नित्य संकल्प के साथ पाठ कर सकता है।

॥ श्री पितृ कृपा स्तोत्रम् ॥

हिन्दी अर्थ सहित

पितृ ध्यान स्तुति

श्वेतवर्णान् शुचिव्रतान् सोमसूर्याग्निलोचनान्।
हिरण्यपात्रहस्तांश्च पितॄन् ध्यायामि पूजितान्॥१॥

अर्थ – श्वेतवर्णी, पवित्र व्रतधारी, चन्द्र–सूर्य–अग्नि जैसे नेत्रों वाले, स्वर्णपात्र धारण किए हुए पितरों का मैं ध्यान करता हूँ।

स्वधासुगन्धिभोजनान् दिव्यवस्त्राभरण्वितान्।
गन्धप्रसूनमालाढ्यान् पितॄन् वन्दे सदाश्रयान्॥२॥

अर्थ – स्वधा-सुगन्धित अन्न से तृप्त, दिव्य वस्त्र और आभूषण धारण किए हुए, पुष्पमालाओं से विभूषित पितरों को मैं वन्दन करता हूँ।

ऋषिसङ्घैः समायुक्तान् लोकपालसमन्वितान्।
दीर्घायुषः प्रजानाथान् पितॄन् नित्यं स्मराम्यहम्॥३॥

अर्थ – ऋषियों और लोकपालों के समान तेजस्वी, दीर्घायु और प्रजाओं के स्वामी पितरों को मैं नित्य स्मरण करता हूँ।

आयुर्विद्यायशः श्रीं च प्रजां पौत्रसमृद्धिम्।
यच्छन्तु मे प्रसन्नाश्च पितरः पावनाः सदा॥४॥

अर्थ – पवित्र पितर प्रसन्न होकर मुझे आयु, विद्या, यश, लक्ष्मी, संतान और पौत्रों की वृद्धि प्रदान करें।


नमः कुलेश्वरेभ्यश्च सर्वलोकपितामहे।
भवतु मम सौभाग्यं प्रसादेनैव शाश्वतम्॥१॥

अर्थ – मैं अपने कुल के स्वामी पितरों और समस्त लोकों के पितामहों को प्रणाम करता हूँ। उनके प्रसाद से मुझे शाश्वत सौभाग्य प्राप्त हो।

दीप्तानलशरीरांश्च सोमपायामृतोद्यान्।
बर्हिषद्भिः समायुक्तान् पितॄन् ध्यायामि सर्वदा॥२॥

अर्थ – जिनका तेज अग्नि के समान है, जो सोमरस और अमृत से तृप्त हैं, तथा जो बर्हिषद् पितरों के साथ विद्यमान हैं—उन पितरों का मैं नित्य ध्यान करता हूँ।

गङ्गायमुनतीरेषु पुण्यतीर्थेषु संस्थितान्।
सदाभिषिक्तधर्माणः पितॄन् वन्दे सनातनान्॥३॥

अर्थ – जो पवित्र गंगा-यमुना और अन्य पुण्य तीर्थों में स्थित होकर धर्म से अभिषिक्त हैं—ऐसे सनातन पितरों को मैं वंदन करता हूँ।

(सोमपितर)
सोमपाः सोमसंपूर्णा दिव्यपात्रनिवासिनः।
श्राद्धेषु यजमानानां तृप्तिदाः स्युः पितामहाः॥४॥

अर्थ – जो सोमरस से परिपूर्ण हैं, दिव्य पात्रों में निवास करते हैं और श्राद्ध में आहुति से संतुष्ट होकर यजमान को तृप्ति प्रदान करते हैं—वे सोमपितर पितामह हमें आशीर्वाद दें।

(अग्निष्वात्ताःपितर)
अग्निष्वात्ता हुताशेषु दग्धदेहा महाव्रताः।
तपस्विनः पितॄन् नित्यं नमाम्यग्निसमानकान्॥५॥

अर्थ – अग्नि में दग्ध देह वाले, महाव्रती, तपस्वी और अग्नि के समान तेजस्वी पितरों—अग्निष्वात्तों को मैं नित्य प्रणाम करता हूँ।

(बर्हिषदाःपितर)
बर्हिषद्भिः समायुक्ता दर्भासनगताः सदा।
गृहस्थाश्रमनाथाश्च पितरः पावनाः शुभाः॥६॥

अर्थ – जो पवित्र बर्हिष (दर्भा-आसन) पर विराजमान रहते हैं और गृहस्थाश्रम के रक्षक हैं—वे बर्हिषद् पितर पवित्र एवं मंगलकारी हैं।

(सद्योजाताःपितर)
सद्योजाता नवानन्दाः नूतनप्रवराश्च ये।
वंशवृद्धिप्रदातारः पितरः सन्तु मे मुदा॥७॥

अर्थ – जो नवनंदित, नूतन और श्रेष्ठ हैं तथा वंशवृद्धि के दाता हैं—ऐसे सद्योजात पितर मुझे प्रसन्नचित्त होकर आशीर्वाद दें।

(वैन्याःपितर)
वैवस्वतान्वया नित्यं धर्मपथप्रवर्तकाः।
मनुवंशप्रसूता ये पितरः सन्तु मे गृहे॥८॥

अर्थ – जो वैवस्वत मनु के वंशज हैं और धर्मपथ को प्रवर्तित करते हैं—वे मनुवंशी पितर मेरे घर में सदैव मंगलकारी हों।

(यम्या पितर)
यमराजानुगा नित्यं धर्मराजपुरःसराः।
सर्वपापप्रशमनाः पितरः सन्तु मङ्गलाः॥९॥

अर्थ – जो यमराज के अनुचर हैं, धर्मराज के साथ रहते हैं और सारे पापों का नाश करने वाले हैं—वे पितर मेरे लिए मंगलकारी हों।

(देवपितर--आर्यमा)
आर्यमा देवपितरः पितॄणां परमाधिपः।
लोकपालसमायुक्तः प्रसीदतु ममेप्सिते॥१०॥

अर्थ – देवपितरों के अधिपति, आर्यमा देव, जो लोकपालों के साथ रहते हैं—वे मेरे सभी अभीष्ट कार्यों में कृपालु हों।

नित्यं हव्यकव्यान्नैः प्रीणयन्तोऽतिथिं यथा।
तृप्तिमावह पितरः सर्वदा मे गृहे शुभम्॥११॥

अर्थ – जो देवताओं को हव्य और पितरों को कव्य के रूप में अन्न देकर संतुष्ट करते हैं, जैसे अतिथि का सत्कार किया जाता है—वे पितर मेरे घर में सदा तृप्ति और शुभता लाएँ।

आयुरारोग्यमिष्टं च धनधान्यसमृद्धयः।
यच्छन्तु मे प्रसन्नाश्च पितरः पावनाः सदा॥१२॥

अर्थ – प्रसन्न पितर मुझे आयु, आरोग्य, प्रिय वस्तुएँ, धन और धान्य की समृद्धि सदा प्रदान करें।

स्वधाकारप्रियां नित्यं पुत्रपौत्रसमन्विताः।
अनुगृह्णन्तु मे नित्यं पितरः पारदर्शिनः॥१३॥

अर्थ – जो स्वधा-आहुति को प्रिय मानते हैं और सदैव पुत्र-पौत्रों से घिरे रहते हैं, वे सर्वज्ञ पितर मुझे नित्य कृपा प्रदान करें।

ॐ नमः पितृदेवेभ्यः श्वेतवर्णाय तेजसे ।
धर्मात्मने महात्मने स्वधाकार्यप्रवर्तके ॥१४॥

अर्थ – मैं उन पितृदेवों को नमस्कार करता हूँ जो श्वेतवर्ण, तेजस्वी, धर्मस्वरूप और स्वधा (पितरों को अर्पित आहुति) के आधार हैं, तथा समस्त कर्मों को प्रवृत्त कराने वाले हैं।

येषां प्रसादात्सन्तोषं प्राप्नुवन्ति जनाः सदा ।
येषां कुपितभावेन दुःखानि बहुधा नराः ॥१५॥

अर्थ – जिन पितरों की प्रसन्नता से मनुष्य को सदा सुख और संतोष प्राप्त होता है, और जिनके अप्रसन्न होने पर नर अनेक प्रकार के दुःखों में पड़ जाते हैं।

ब्रह्मलोकस्थिताः श्रेष्ठा देवलोके च साधवः ।
सोमलोकनिवासिनश्च पितरस्ते नमोऽस्तु ते ॥१६॥

अर्थ – जो श्रेष्ठ पितर ब्रह्मलोक में स्थित हैं, जो देवताओं के लोक में साधु रूप से विराजमान हैं, और जो सोमलोक में निवास करते हैं, उन पितरों को नमस्कार।

अग्निष्वात्ताश्च बर्हिषदः सोमपाः सुमनस्विनः ।
हविर्भुजस्तथान्ये च नित्यं पितृगणाः स्मृताः ॥१७॥

अर्थ – अग्निष्वात्त, बर्हिषद, सोमप, सुमनस्वी और हविर्भुज—ये सब नित्य स्मरणीय पितृगण हैं। ये ही पितृलोक के स्थायी अधिपति और पूजनीय माने जाते हैं।

श्राद्धदानजपैः स्तुत्या हव्यकव्यप्रदायिनः ।
लोकत्रयहितार्थाय नित्यं तिष्ठन्ति पितरः ॥१८॥

अर्थ – श्राद्ध, दान, जप और स्तुति के द्वारा जो प्रसन्न होकर हव्य (देवताओं के अर्पण) और कव्य (पितरों के अर्पण) का फल देते हैं, वे पितर सदा तीनों लोकों का कल्याण करते हुए विद्यमान रहते हैं।

तेषां स्मरणमात्रेण पवित्रं जायते किल ।
अस्माकं रक्षणार्थाय पितरः सन्तु नित्यशः ॥१९॥

अर्थ – उन पितरों का केवल स्मरण करने से ही मनुष्य पवित्र हो जाता है। वे हमारे रक्षक बनकर हमें सदा आशीर्वाद प्रदान करें।

नमो नमस्ते महायोगिनः स्वधाभुजः ।
लोकानां पतयः सर्वे पितरस्ते नमो नमः ॥२०

अर्थ – हे महायोगी, स्वधा के भोगकर्ता, समस्त लोकों के अधिपति पितरों! आप सबको बार-बार प्रणाम है।

ॐ नमो पितृदेवेभ्यः सर्वयज्ञस्वरूपिणे ।
आयुरारोग्यसंपत्तिं ददातु मम सर्वदा ॥ २१॥

अर्थ – हे पितृदेव! आप यज्ञस्वरूप हैं। कृपया मुझे सदैव आयु, आरोग्य और संपत्ति प्रदान करें।

नमः स्वधायै देव्या च पितृभ्योऽपि नमो नमः ।
प्रसीदन्तु सदा नित्यं सर्वसौभाग्यदायिनः ॥ २२॥

अर्थ – स्वधा देवी और सभी पितृगणों को बारंबार नमस्कार। वे सदा कृपा करके सौभाग्य प्रदान करें।

पितरः पितृणां नाथाः मातामहपितामहाः ।
भवन्तु मम मार्गेऽस्मिन् कृपालवदनाः सदा ॥ २३॥

अर्थ – पितामह, मातामह और प्रपितामह आदि पूर्वज जो पितृलोक के स्वामी हैं, वे मेरे मार्ग में सदा दयालु बने रहें।

येषां प्रसादात् पश्यामि दिवं भूमिं च सर्वशः ।
ते पितरः कृपां कुर्वन् मम जीवनपावनाः ॥ २४॥

अर्थ – जिनकी कृपा से यह आकाश और पृथ्वी दिखाई देती हैं, वे पितर मेरी जीवन यात्रा को पावन करें।

देवाः पितृपूजनेन तृप्ताः स्युः निरन्तरम् ।
तस्मात् पितृपूजनं हि सर्वपापप्रणाशनम् ॥ २५॥

अर्थ – देवता भी पितृपूजन से तृप्त होते हैं, अतः पितृपूजन सभी पापों का नाशक है।

पितरः प्रेतरूपाश्च दिव्यदेहसमन्विताः ।
आशीर्वचनदातारः पुत्रपौत्रप्रवर्धनाः ॥ २६॥

अर्थ – पितर, जो दिव्य शरीर से युक्त और प्रेतरूप हैं, आशीर्वाद देते हैं और पुत्र-पौत्रों की वृद्धि करते हैं।

पितृलोकप्रभुः सोमो यत्र स्थायि मनोहरः ।
सन्तु तत्र मम पित्रः सुखदाः सर्वदा ध्रुवम् ॥ २७॥

अर्थ – जहाँ चंद्रमा पितृलोक का स्वामी है, वहाँ मेरे पितर सदा सुखद और स्थायी हों।

अग्निष्वात्ता वसवो ये ये चान्ये दिवौकसः ।
ते पितरः कृपां कुर्वन् मम मार्गप्रदर्शकाः ॥ २८॥

अर्थ – अग्नि के स्वामी, वसु और अन्य दिव्य पितर मेरे मार्ग के दैविक मार्गदर्शक बनें।

नमोऽस्तु मम पित्रेभ्यो मातामहपितामहेभ्यः ।
प्रपितामहपुज्येभ्यः नमः सर्वेभ्य एव च ॥ २९॥

अर्थ – मेरे पितर, मातामह, पितामह एवं प्रपितामह सभी को मेरा नमन।

ये ज्ञाता येऽज्ञातकुलजा ये चान्ये बान्धवाः सदा ।
सर्वे सन्तु कृपालवो मम रक्षां करोत्तमाम् ॥ ३०॥

अर्थ – जो ज्ञात और अज्ञात कुलज तथा अन्य बंधु हैं, वे कृपालु होकर मेरी रक्षा करें।

पितरः पूजिताः सन्तु स्वधाक्लिन्नजलेन च ।
तर्पिताः पिण्डदानैश्च ददतु मे मनःसुखम् ॥ ३१॥

अर्थ – जो पितर स्वधा जल और पिण्डदान से तृप्त होते हैं, वे मुझे मानसिक सुख दें।

स्वधाकार्ये प्रसन्नाश्च यज्ञहोमसमर्पिताः ।
ते पितरः कृपां दत्वा रक्षयन्तु निशामहम् ॥ ३२॥

अर्थ – स्वधा के कर्मों में प्रसन्न होकर, यज्ञ-होम को समर्पित पितर मेरी रक्षा दिन-रात्रि करें।

गङ्गायाम्यं सरस्वत्यां पुण्यतोये च सिन्धुषु ।
तर्पिताः पितरः सर्वे सन्तु मेऽभयदायिनः ॥ ३३॥

अर्थ – जो पितर गंगा, यमुना, सरस्वती आदि पवित्र नदियों में तर्पण से संतुष्ट होते हैं, वे मुझे अभय प्रदान करें।

येषां प्रसादेन सदा परिवारः सुखमेधितः ।
ते पितरः कृपां कुर्वन् मोदन्तां मम सन्ततम् ॥ ३४॥

अर्थ – जिनकी कृपा से मेरा परिवार सदा सुखी रहता है, वे पितर मुझ पर कृपा करें और सदा प्रसन्न रहें।

कुलधर्मप्रवर्तारः पितरः सन्तु शाश्वतः ।
मम कर्मसु सर्वेषु सहायाः शुभदायिनः ॥ ३५॥

अर्थ – जो कुलधर्म की प्रतिष्ठा करते हैं, वे मेरे सभी कर्मों में शुभ फल देने वाले सहायक हों।

यज्ञदानतपोव्रतान् ये पित्रो नित्यमार्जिताः ।
तद्भागं मेऽपि संप्राप्य सुखिनः सन्तु सर्वदा ॥ ३६॥

अर्थ – जो पितर यज्ञ, दान, तप और व्रत से पुण्य कमा चुके हैं, उनका भाग मुझे भी मिले और वे सदैव सुखी रहें।

ये वनं निर्जनं गत्वा तपश्चर्यां समास्थिताः ।
ते पितरः कृपां कुर्वन् मम जीवनरक्षकाः ॥ ३७॥

अर्थ – जो पितर वन में जाकर तपस्या करते हैं, वे मेरी रक्षा हेतु कृपा करें।

श्राद्धतर्पणप्रीताश्च स्वधासिक्तजलेषु ये ।
ते पितरः प्रसीदन्तु ददतु मेऽभयप्रदम् ॥ ३८॥

अर्थ – जो पितर श्राद्ध और तर्पण से प्रसन्न होते हैं, वे मुझे निर्भयता प्रदान करें।

मातामहपितामहाः प्रपितामहसञ्ज्ञकाः ।
ते सन्तु मम मार्गेषु शुभदृष्टिप्रदायकाः ॥ ३९॥

अर्थ – मातामह, पितामह और प्रपितामह मेरे जीवन मार्ग में शुभ दृष्टि प्रदान करें।

अज्ञातकुलजा ये च सन्ति मे बान्धवाः सदा ।
ते पितरः कृपां कुर्वन् रक्षयन्तु निरन्तरम् ॥ ४०॥

अर्थ – जो अज्ञात कुलज और मेरे अन्य बंधु हैं, वे कृपा करके मेरी रक्षा निरंतर करें।

पितरः सततं ध्येया ध्यानयोगसमन्विताः ।
भवन्तु मम रक्षायै सर्वकष्टप्रणाशनाः ॥ ४१॥

अर्थ – पितर ध्यानयोग से जुड़े रहें, मेरी रक्षा करें और सभी कष्टों का नाश करें।

येषां प्रसादात् सन्तोषो गृहेषु नित्यमेव मे ।
ते पितरः कृपां कुर्वन् सन्तु मे सुखदायिनः ॥ ४२॥

अर्थ – जिनकी कृपा से मेरे घर में सदा संतोष रहता है, वे मुझे सुख प्रदान करें।

श्राद्धमासे विशेषेण पूजिताः पिण्डतर्पणैः ।
ते पितरः प्रसन्नाश्च संजीवनमिव ददुः ॥ ४३॥

अर्थ – श्राद्ध मास में पिण्ड और तर्पण से पूजित पितर प्रसन्न होकर जीवन में ऊर्जा प्रदान करें।

ये पित्रो मन्त्रविद्वांसः कर्मकाण्डविशारदाः ।
ते मम कुलरक्षायै स्थिरा आशिषमर्पयन् ॥ ४४॥

अर्थ – जो पितर मन्त्र और कर्मकाण्ड के ज्ञाता थे, वे मेरे कुल की रक्षा हेतु स्थिर आशीर्वाद दें।

यज्ञाग्निसंनिधानेषु हुत्वा हव्यमनन्तकम् ।
पितरः पावनाः सन्तु धर्मपथप्रवर्तकाः ॥ ४५॥

अर्थ – जो पितर यज्ञाग्नि में अनंत हवन करते थे, वे धर्मपथ के प्रवर्तक पवित्र पितर हों।

नमो नमः सदा तेषां पितृणां कृपया युतम् ।
ये ममाऽभ्युदयार्थाय ददति दिव्यमाशिषः ॥ ४६॥

अर्थ – मैं बारंबार उन पितरों को प्रणाम करता हूँ, जो मेरे अभ्युदय के लिए दिव्य आशीर्वाद देते हैं।

कृपया पितरः सर्वे रोगशोकविनाशनाः ।
सदा मे दीर्घमायुष्यं सौख्यमारोग्यमर्पयन् ॥ ४७॥

अर्थ – कृपालु पितर मेरे रोग और शोक का नाश कर दीर्घायु, सौख्य और स्वास्थ्य दें।

सर्वपापप्रशमनं पितृपूजनमेव च ।
तेन पितरः प्रसीदन्तु ददतु मे शुभं फलम् ॥ ४८॥

अर्थ – पितृपूजन से सारे पाप नष्ट होते हैं, इसलिए पितर प्रसन्न होकर मुझे शुभफल दें।

नानायज्ञफलेनैव पितरः पूज्यते यतः ।
तस्मात् पितृकृपा नित्यं सर्वेषां प्राणिनां ध्रुवम् ॥ ४९॥

अर्थ – पितर विभिन्न यज्ञफलों से पूजित होते हैं, इसलिए उनकी कृपा सभी प्राणियों के लिए आवश्यक है।

येषां कृपया सन्तोषो वंशे मेऽभिवर्धते ।
ते पितरः प्रसीदन्तु मोक्षदायिन एव च ॥ ५०॥

अर्थ – जिनकी कृपा से मेरा वंश बढ़ता है, वे पितर प्रसन्न होकर मोक्ष भी दें।

ॐ पितृभ्यो नमस्तुभ्यं, सदा रक्षां प्रकल्पय ।
संतान-समृद्धिं दत्त्वा, वंशो मे स्थिरो भवेत् ॥ ५१॥

अर्थ – हे पितृदेव! मैं आपको प्रणाम करता हूँ। कृपा करके मेरी रक्षा करें, संतान और वंश की स्थिरता दें।

आरोग्यं मे प्रयच्छन्तु, दीर्घायुष्यं सुखं तथा ।
पितरः प्रीतिमन्तो मे, दुःखं नैव ददातु ते ॥ ५२॥

अर्थ – पितरों की कृपा से मुझे स्वास्थ्य, दीर्घायु और सुख मिले तथा दुःख न दें।

गृहं मे सौख्यमायान्तु, धनधान्यसमन्वितम् ।
भोगमोक्षप्रदाता मे, पितरः सन्तु नित्यशः ॥ ५३॥

अर्थ – मेरा घर सुख-समृद्धि से पूर्ण हो, और पितर मुझे भोग एवं मोक्ष प्रदान करें।

विधवा नास्ति मे कुत्र, न च सन्तानहीनता ।
नित्यं पितृकृपा-योगात्, वंशोऽयं पुष्यते ध्रुवम् ॥ ५४॥

अर्थ – पितृकृपा से मेरे घर में विधवा-दुःख और संतानहीनता न हो, वंश उन्नत और स्थिर हो।

शत्रवो नाशमायान्तु, मित्राणि स्युर्निरन्तरम् ।
पितृशक्त्या मम स्थैर्यं, धर्मे सत्ये प्रतिष्ठितम् ॥ ५५॥

अर्थ – शत्रु नष्ट हों, मित्र बढ़ें, और पितृशक्ति से मैं धर्म और सत्य में दृढ़ रहूँ।

पितृणां वचनं सत्यं, पितृणां शक्तिरप्रमेय ।
पितृपूजनतस्तेषां, सदा सौख्यं लभेत नः ॥ ५६॥

अर्थ – पितरों के वचन सत्य और उनकी शक्ति अत्यंत है; उनके पूजन से सदैव सुख प्राप्त होता है।

क्लेशरहितं मम जीवितं, दुःखरहितं मम मनः ।
सन्ततं पितृसंरक्ष्यं, भवतु मे परं सुखम् ॥ ५७॥

अर्थ – मेरा जीवन और मन क्लेश और दुःख से रहित हों, निरंतर पितृ संरक्षण से मुझे परम सुख प्राप्त हो।

विद्यां मे ददतु पितरः, बुद्धिं च शुद्धमानसम् ।
कर्मसु सिद्धिं सदा मे, पितृकृप्या प्रकाशयेत् ॥ ५८॥

अर्थ – पितर मुझे ज्ञान और निर्मल बुद्धि दें तथा कर्मों में सफलता प्रदान करें।

भक्त्या स्मरामि पितरः, श्रद्धया तर्पयाम्यहम् ।
तुष्टास्ते मम सन्तोषं, दीयन्तामभिवाञ्छितम् ॥ ५९॥

अर्थ – मैं भक्ति से पितरों को स्मरण करता हूँ और श्रद्धा से तर्पण करता हूँ; वे प्रसन्न होकर मेरी इच्छाएँ पूर्ण करें।

सर्वयज्ञमयी शक्तिः, सर्वदानप्रदा शुभा ।
पितृकृपा सदा मेऽस्तु, सर्वसिद्धिप्रदा भवेत् ॥ ६०॥

अर्थ – पितृकृपा यज्ञरूपी और दान देने वाली है; वह सदा मेरी सभी सिद्धियाँ पूर्ण करे।

यत्र गच्छामि तत्रैव, पितृरक्षा मया सह ।
अपदः शममायान्तु, सिद्धयः सम्प्रदीयताम् ॥ ६१॥

अर्थ – जहाँ-जहाँ मैं जाऊं, पितृ सुरक्षा मेरे साथ हो; संकट दूर हों और सिद्धि मिले।

कर्मक्लेशो न मे भूयात्, रोगदुःखं न विद्यते ।
पितृकृपामृतं पीत्वा, जीवनं मे सुखावहम् ॥ ६२॥

अर्थ – कर्मक्लेश न हो, रोग-पीड़ा न हो; पितृकृपामृत पीकर मेरा जीवन सुखमय हो।

अनायासं सुखं ज्येष्ठ्यं, सौख्यं मे पुत्रपौत्रकम् ।
पितरः सम्प्रसन्नास्तु, वंशोऽयं विस्तारयेत् ॥ ६३॥

अर्थ – मुझे सरल सुख, संतान-पौत्र की सौख्य दें; पितर प्रसन्न होकर मेरा वंश बढ़ाएँ।

सर्वसिद्धिप्रदा नित्यं, सर्वत्र जयदायिनी ।
पितृकृपा सदा मेऽस्तु, भवबन्धविनाशिनी ॥ ६४॥

अर्थ – पितृकृपा सदा सभी सिद्धियां दे, सर्वत्र विजय प्रदान करे और संसारबंध नष्ट करे।

शरणं मे पितरः स्युः, प्रार्थनां शृणुतां कृपाम् ।
अस्माकं जीवनं नित्यं, धन्यं धर्म्यं च वर्धताम् ॥ ६५॥

अर्थ – पितर मेरी शरण हों, मेरी प्रार्थनाएँ सुनें और मेरा जीवन धन्य व धर्मयुक्त बढ़े।

तर्पणं पितृपूजां च, यो नरः श्रद्धया
तस्य वंशः सदा पुष्येत्, सर्वैश्चैव मनोऽभिलषितम् ॥ ६६॥

अर्थ – जो श्रद्धा से पितृपूजन और तर्पण करता है, उसकी कुल वृद्धि हो और सभी मनोकामनाएँ पूर्ण हों।

पिण्डदानं महापुण्यं, श्राद्धकर्म सदा शुभम् ।
पितृपूजासमं नास्ति, न च तर्पणसमं फलम् ॥ ६७॥

अर्थ – पिण्डदान और श्राद्ध सर्वोच्च पुण्य के कर्म हैं; पितृपूजन और तर्पण के समकक्ष कोई फल नहीं।

यत्र श्राद्धं कृतं भक्त्या, यत्र तर्पणमर्पितम् ।
तत्रैव पितरो हृष्टाः, वदन्ति पुत्र संततिम् ॥ ६८॥

अर्थ – जहाँ श्रद्धाभाव से श्राद्ध और तर्पण किया जाता है, वहाँ पितर प्रसन्न होकर पुत्र और वंश की वृद्धि की वाणी देते हैं।

अन्नं जलं फलैः पूज्यं, दत्तं स्वधाभिधानतः ।
पितरः प्रीतिमायान्ति, पावयन्ति कुलं ध्रुवम् ॥ ६९॥

अर्थ – अन्न, जल एवं फल ‘स्वधा’ नाम से अर्पित करने पर पितर प्रसन्न होकर कुल को पवित्र बनाते हैं।

तस्मात् श्रद्धां समालम्ब्य, तर्पयेत् पितृगणकान् ।
तेषां प्रसादतो नित्यं, सुखं सौभाग्यमृच्छति ॥ ७०॥

अर्थ – अतः श्रद्धा के साथ पितृगणों को तर्पण करना चाहिए; उनके प्रसाद से सदा सुख और सौभाग्य प्राप्त होता है।

पितृभ्यो मे कृपां दृष्ट्वा, सर्वसुखान् समाप्नुयात् ।
सन्तानसमृद्धिं दत्त्वा, जीवनं मे यशस्विनम् ॥ ७१॥

अर्थ – पितरों की कृपा देखकर मुझे सभी सुख प्राप्त हों; संतानसमृद्धि देते हुए मेरा जीवन यशस्वी हो।

पुण्यमाययाद्येनैव, पितृष्वपि वंशजा क्रिया ।
धर्मसंस्थापनार्थं च, सर्वदा मम भवेत् ॥ ७२॥

अर्थ – पितरों के वंशज धर्म की स्थापना के लिए पुण्य कर्म करें; मेरा जीवन सदैव शुभ हो।

प्रजापतिविधिप्रमुखं, यज्ञदाननिर्वृतिप्रियम् ।
मम पितरि सदा भूयात्, कृपया पूज्यान्निवेशितम् ॥ ७३॥

अर्थ – जो पितर यज्ञ, दान और प्रजापति के विधान में निपुण हैं, वे सदा कृपा पूर्वक पूज्य और पूजित रहें।

सर्वपापप्रशमनं च, पितृकृपा साधकं वयम् ।
पूजापूर्वकं प्रति तेषां, स्मरतः फलमाप्नुयात् ॥ ७४॥

अर्थ – पितृकृपा पाप नाशक है; हम जो श्रद्धा और भक्ति से पितरों का पूजन करें, वे फल-प्रदायक हों।

यं पठेत् स्तोत्रमेतत् तु, श्रद्धया भक्तिसंयुतः ।
स पितृकृपया नित्यं, सर्वसौख्यमवाप्नुयात् ॥ ७५॥

अर्थ – जो श्रद्धा और भक्ति से इस स्तोत्र का पाठ करता है, वह सदा पितृकृपा से सभी सुख प्राप्त करे।

इति स्तुत्वा पितॄन् भक्त्या श्रद्धया परया नरः।
प्रीणयत्यचिरात्सर्वान् कुलपितामहान्बुधः॥७६।।

अर्थ – जो मनुष्य श्रद्धा और भक्ति से पितरों की इस प्रकार स्तुति करता है, वह शीघ्र ही सभी कुलपितामहों को संतुष्ट कर देता है।

धनं धान्यं च सौभाग्यं, पुत्रपौत्रसमन्वितम् ।
प्राप्नोति सततं भक्त्या, पितृकृपास्तुतिं जपन् ॥ ७७॥

अर्थ – इस स्तोत्र की भक्ति से धन, धान्य, सौभाग्य और संतान-पौत्र की प्राप्ति होती है।

पितृणां सन्ततं प्रीतिर्भवति स्तोत्रपाठतः ।
तस्मात् सम्पूज्य पितरः, सर्वदा रक्षिता नृणाम् ॥ ७८॥

अर्थ – इस स्तोत्र के पाठ से पितर प्रसन्न होते हैं और सदा वंशजों की रक्षा करते हैं।

इदं पितृकृपा-स्तोत्रं, सर्वपापप्रणाशनम् ।
पठन् भक्त्या लभेत् नित्यं, पितृलोकान् सदा शुभान् ॥ ७९॥

अर्थ – यह पितृकृपा स्तोत्र सभी पापों का नाश करता है; जो भक्तिपूर्वक पढ़ते हैं उन्हें शुभ पितृलोक प्राप्त होता है।

इति शुभम्।
यशवीरशास्त्रीविरचितं श्रीपितृकृपास्तोत्रं संपूर्णम्॥

🕉🕉🕉🕉🕉🕉🕉🕉🕉🕉🕉🕉🕉

🕉 हे शिव, हे शंकर, हे महादेव, हे शम्भो 🕉

🕉 कोटि - कोटि प्रणाम ! हर हर महादेव 🕉

इसका पाठ करने से मुख्य लाभ:

  • पितरों की आत्मा को शांति प्राप्त होती है।
  • परिवार में सुख-समृद्धि और स्वास्थ्य बना रहता है।
  • वंश में स्थिरता, संतान-सुख और कल्याण प्राप्त होता है।
  • पितृदोष, पितृरिण तथा अनिष्ट बाधाओं से मुक्ति मिलती है।

महत्त्व और फल:

  • पितृ तृप्ति – यह स्तोत्र पितरों के सम्मान और तृप्ति के लिए सर्वोत्तम माना गया है।
  • कुल की रक्षा – पितृ प्रसन्न होकर वंशजों की रक्षा करते हैं।
  • आयु व आरोग्य – इसका पाठ करने वाले को दीर्घायु, उत्तम स्वास्थ्य और संतति का सुख मिलता है।
  • धन-समृद्धि – पितरों की कृपा से व्यापार, धन और भूमि में वृद्धि होती है।
  • पितृ दोष शांति – जिनकी कुंडली में पितृ दोष या श्राद्ध संबंधी बाधा हो, उन्हें इस स्तोत्र का पाठ विशेष लाभ देता है।

पाठ-विधि:

सुबह स्नान के बाद शुद्ध होकर पीपल वृक्ष, घर के पवित्र स्थान या पितरों के स्मारक (श्राद्ध स्थल) पर बैठकर पाठ करना चाहिए।

काले तिल, जल, पुष्प और अक्षत अर्पित करना शुभ माना जाता है।

श्राद्ध पक्ष (पितृ पक्ष) या अमावस्या को इसका पाठ अधिक प्रभावकारी होता है।

पितृ तृप्ति और कृपा प्राप्त करने के लिए नीचे दिए गए मंत्रों का श्रद्धा भाव से जप करें!

🔹 पितृ गायत्री मंत्र

ॐ पितृभ्यः स्वधा नमः ॥

इसे पढ़ने या जप करने से पितरों की आत्मा तृप्त होती है और वे प्रसन्न होकर अपनी संतानों को सुख, समृद्धि और आयु का आशीर्वाद देते हैं।
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