श्री गणपत्यर्थवर्धशीर्षम् (गणपति अथर्वशीर्ष)...
श्री गणपत्यर्थवर्धशीर्षम् अथवा गणपति अथर्वशीर्ष उपनिषद का एक अद्वितीय ग्रंथ है। इसे अथर्ववेद का अंग माना गया है और इसमें गणपति को सर्वश्रेष्ठ ब्रह्म स्वरूप घोषित किया गया है।
गणेश जी केवल विघ्नहर्ता ही नहीं, बल्कि ज्ञान, विज्ञान, आत्मबोध और मोक्ष के दाता माने गए हैं।
इस उपनिषद का पाठ करने से साधक के जीवन में विघ्न दूर होते हैं, बुद्धि की वृद्धि होती है और परमात्मा के प्रति अडिग श्रद्धा जागृत होती है।
।। श्रीगणपत्यथर्वशीर्षम् ।।
"मूल श्लोक" सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहे। तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहे। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ ॐ नमस्ते गणपतये। त्वमेव प्रत्यक्षं तत्त्वमसि। त्वमेव केवलं कर्ताऽसि। त्वमेव केवलं धर्ताऽसि। त्वमेव केवलं हर्ताऽसि। त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि। त्वं साक्षादात्माऽसि नित्यम् ॥ १ ॥ ऋतं वच्मि। सत्यं वच्मि। अव त्वं माम्। अव वक्तारम्। अव श्रोतारम्। अव दातारम्। अव धातारम्। अवानूचानाम् शिष्यम्। अव पश्चात्। अव पुरस्तात्। अवोत्तरात्। अव दक्षिणात्। अव चोर्ध्वात्। अवाधरात्। सर्वतो मां पाहि पाहि समन्तात् ॥ २ ॥ त्वं वाङ्मयस्त्वं चिन्मयः। त्वमानन्दमयः। त्वं ब्रह्ममयः। त्वं सच्चिदानन्दाद्वितीयोऽसि। त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि। त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽसि ॥ ३ ॥ सर्वं जगदिदं त्वत्तो जायते। सर्वं जगदिदं त्वत्तस्तिष्ठति। सर्वं जगदिदं त्वयि लयमेष्यति। सर्वं जगदिदं त्वयि प्रत्येति। त्वं भूमिरापोऽनलोऽनिलो नभः। त्वं चत्वारि वाक्पदानि ॥ ४ ॥ त्वं गुणत्रयातीतः। त्वमवस्थात्रयातीतः। त्वं देहत्रयातीतः। त्वं कालत्रयातीतः। त्वं मूलाधारस्थितोऽसि नित्यम्। त्वं शक्तित्रयात्मकः। त्वां योगिनो ध्यायन्ति नित्यं। त्वं ब्रह्मा त्वं विष्णुस्त्वं रुद्रस्त्वमिन्द्रस्त्वं अग्निस्त्वं वायुस्त्वं सूर्यस्त्वं चन्द्रमास्त्वं ब्रह्मभूर्भुवःस्वरोम् ॥ ५ ॥ गणादिं पूर्वमुच्चार्य वर्णादिं तदनन्तरम्। अनुस्वारः परतरः। अर्धेन्दुलसितम्। तारेण ऋद्धम्। एतत्तव मनुस्वरूपम्। गकारः पूर्वरूपम्। अकारो मध्यमरूपम्। अनुस्वारश्चान्त्यरूपम्। बिन्दुरुत्तररूपम्। नादः संधानम्। संहिताः संधिः। सैषा गणेशविद्या। गणक ऋषिः। निचृद्गायत्री छन्दः। गणपतिर्देवता। ॐ गं गणपतये नमः ॥ ६ ॥ एकदन्ताय विद्महे। वक्रतुण्डाय धीमहि। तन्नो दन्तिः प्रचोदयात् ॥ ७ ॥ एकदन्तं चतुर्हस्तं पाशमङ्कुशधारिणम्। रदं च वरदं हस्तैर्बिभ्राणं मूषकध्वजम्। रक्तं लम्बोदरं शूर्पकर्णकं रक्तवाससम्। रक्तगन्धानुलिप्ताङ्गं रक्तपुष्पैः सुपूजितम्। भक्तानुकम्पिनं देवं जगत्कारणमच्युतम्। आविर्भूतं च सृष्ट्यादौ प्रकृतेः पुरुषात्परम्। एवं ध्यायति यो नित्यं स योगी योगिनां वरः ॥ ८ ॥ नमो व्रातपतये। नमो गणपतये। नमः प्रमथपतये। नमस्तेऽस्तु लम्बोदरायैकदन्ताय विघ्ननाशिने शिवसुताय वरदमूर्तये नमः ॥ ९ ॥ ॥ इति श्रीगणपत्यथर्वशीर्षम् ॥
उपनिषद का सार:
- 🔹 इसमें गणेश जी को सृष्टि के मूल कारण, पालनहार और संहारकर्ता बताया गया है।
- 🔹 वे ही ॐ का स्वरूप हैं — प्राण, आत्मा और परब्रह्म।
- 🔹 उपनिषद में गणेश जी को ज्ञानस्वरूप, सर्वत्र व्याप्त और अखंड चैतन्य के रूप में प्रतिपादित किया गया है।
- 🔹 साधक जब इसका पाठ करता है तो उसकी वाणी शुद्ध, मन एकाग्र, और बुद्धि प्रकाशित हो जाती है।
पाठ करने के नियम:
- प्रातःकाल स्नान करके स्वच्छ वस्त्र धारण करें।
- गणेश जी की मूर्ति अथवा चित्र के सामने दीपक व धूप प्रज्वलित करें।
- श्रद्धा और एकाग्रचित्त होकर इस उपनिषद का पाठ करें।
- शुक्रवार, चतुर्थी, गणेश चतुर्थी और किसी भी नए कार्यारंभ के अवसर पर इसका पाठ विशेष फल देता है।
श्री गणपत्यर्थवर्धशीर्षम् के पाठ से लाभ:
- विघ्न नाश – जीवन की बाधाएँ, रुकावटें और संकट दूर होते हैं।
- विद्या एवं बुद्धि वृद्धि – विद्यार्थी, शोधार्थी और विद्वानों के लिए अत्यंत लाभकारी।
- आयु एवं आरोग्य – रोग और भय से मुक्ति मिलती है।
- धन एवं समृद्धि – घर-परिवार में सुख-शांति और ऐश्वर्य बढ़ता है।
- मोक्ष मार्ग – आत्मज्ञान और ईश्वर के स्वरूप की अनुभूति।
विशेष महत्व:
उपनिषदों में यह एकमात्र ग्रंथ है जिसमें भगवान गणेश को सीधे परब्रह्म के रूप में निरूपित किया गया है।
इसका श्रवण और पाठ गणपति साधना की पूर्णता प्रदान करता है।
"जो साधक श्रद्धा से गणपति अथर्वशीर्ष का पाठ करता है,
उसे सभी देवताओं की कृपा और जीवन में सिद्धि प्राप्त होती है।"
संक्षेप
श्री गणपत्यर्थवर्धशीर्षम् केवल एक स्तोत्र नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक ग्रंथ है जो साधक को ज्ञान, शांति, समृद्धि और मोक्ष प्रदान करता है।

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